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    पटना उच्च न्यायालय

    PHC

    सृजन


    22 मार्च, 1912 को भारत के गवर्नर जनरल द्वारा की गई उद्घोषणा के अनुसार बिहार और उड़ीसा के क्षेत्र जो पहले बंगाल में फोर्ट विलियम प्रेसीडेंसी की सीमा के भीतर शामिल थे, का एक अलग प्रंात के रूप में उन्नयन किया गया था, और लेटर-पेटेंट द्वारा, दिनांक-9 फरवरी 1916 को कटक में हुए सर्किट बैठकों के साथ पटना उच्च न्यायालय को अस्तित्व में लाया गया था। 26 जनवरी, 1916 की तिथि को, जिस दिन उपरोक्त लेटर-पेटेंट भारत के राजपत्र में प्रकाशित किया गया, बंगाल में उच्च न्यायालय फोर्ट विलियम्स के क्षेत्राधिकार को दीवानी, आपराधिक, नावाधिकरण, वैवाहिक और मांगपत्र वसीयती एवं निर्वसीयती आदि के लिए समाप्त कर दिया था एवं ऐसे मामलों का क्षेत्राधिकार उच्च न्यायालय पटना को दिया गया था। इस प्रकार प्राचीन पाटलीपुत्रा शहर के पास पटना उच्च न्यायालय 1916 में बना था जिसके प्रथम मुख्य न्यायाधीश सर इडवर्ड मेनार्ड डेस चैमप्स चैमियर, केटी बैरिस्टर-एट-लाॅ थे एवं सर्वश्री सैयद सरफुद्दीन, बैरिस्टर-एट-लाॅ, एडमण्ड पेली चैपमैन, आई0 सी0 एस0, बसंत कुमार मल्लिक, आई0 सी0 एस0, फ्रांसिस रेजिनाल्ड रो, आई0 सी0 एस0, सेसिल एटंिगसन, बैरिस्टर-एन-लाॅ एवं ज्वाला प्रसाद, बी0 ए0 एल0 एल0 बी0, अवर न्यायधीश थे।

    आधारशिला


    महामहिम दिवंगत वायसराय और भारत के गवर्नर जनरल पेंशस्र्ट के लार्ड हार्डिंग द्वारा 1 दिसम्बर 1913, दिन सोमवार को उच्च न्यायालय भवन की आधारशिला रखी गई, जिन्होंने इस अवसर पर अपने यादगार भाषण में कहाः-
    “ इस आधारशिला को रखने के इतिहास की जानकारी आप सबों को है और मैं सोचता हूॅ कि आपलोग सहमत होंगे कि जब एक बार यह सुनिश्चित कर दिया गया कि बिहार और उड़ीसा को एक अलग प्रांत का दर्जा दिये जाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए तो यह एक प्रशासनिक विसंगति होगी कि यहाॅ के लोगों को अभी भी अपनी सीमा से परे उस स्थान पर अपने मुकदमों को जारी रखना चाहिए, जहाॅ विभिन्न वातावरण और भाषाओं की जानकारी की असमर्थता, दूरी, व्यय और समय की कमी जैसी असुविधाओं में वृद्धि होती है। ……… अब मैं इस आधारशिला को रखने हेतु इस प्रांत के लोगों पर पूर्ण विश्वास के साथ अग्रसर होता हूॅ। साथ ही आश्वस्त हूॅ कि भविष्य के दिनों में इसके अधिकार क्षेत्र में बुराई करने वालों पर आतंक पैदा करने के लिए निष्पक्षता एवं प्रत्येक लक्ष्य की प्राप्ति के साथ जो सही और सत्य हो, न्याय किया जाएगा, ताकि बिहार का उच्च न्यायालय युक्तियुक्त, विवेक और उचित कानून के लिए ख्याति प्राप्त कर सके। ”

    उद्घाटन


    दिन गुरुवार दिनांक 3 फरवरी 1916 को इस प्रयोजन हेतु आयोजित दरबार में उक्त वाइसराय द्वारा पटना उच्च न्यायालय भवन के निर्माण के पश्चात उसका औपचारिक उद्घाटन किया गया। इस अवसर पर लार्ड हार्डिंग ने निम्नलिखित अवलोकन कियाः- “ मैं एक बिल्कुल अनुपम कर्तव्य पूरा करने को हूॅ एवं मुझे नहीं लगता है कि किसी भी पूर्व के वायसराय के भाग्य में यह मौका मिला होगा। – जब मैं इस सुन्दर भवन को देखता हूॅ, मुझे लगता है कि इस राज्य के लोग अपने आप को इस नई संस्था के लिए बधाई दे सकते हैं, यह अपने आप में महानता का प्रतीक, संभवतः प्रत्येक नागरिक एवं राज्य के बीच लिया गया गुरुतर निर्णय होगा। मैं, अपनी सारी शुभकामनाओं के साथ कि यह न्यायालय, परिश्रम, बुद्धिमत्ता, विवेक, न्याय एवं दयाभाव से प्रेरित हो सकेगा, अब इस भवन के उद्घाटन हेतु अग्रसर होता हूॅ। ”
    वास्तव में उच्च न्यायालय ने 1 मार्च 1916 से कार्य शुरू कर दिया। उस दिन माननीय न्यायमूर्तिगण पूर्ण न्यायालय के लिए वांछित परिधान पहन रखे थे। वे लाल गाउन, विग, घुटने तक कालेरंग का परिधान, काले सिल्की मौजे एवं काले बकसुआ पेटेन्ट चमड़े के जूते धारण किये थे। ठीक 10ः35 में न्यायमूर्तिगण मुख्य न्यायधीश के न्यायालय कक्ष के अंदर आये एवं मंच पर लगे लालरंग के बिना बांहवाले मोरोक्को भरवां कुर्सियों पर आसीन हो गये। न्यायालय के निबंधक प्रमंडलीय-आयुक्त, आयुक्त, उत्पाद एवं निबंधन एवं स्थानीय उच्च पदाधिकारीगण, मंच पर उपस्थित न्यायधीशों के पीछे अपना स्थान ग्रहण किये। मौलाना मजरहुल हक, बैरिस्टर-एट-लाॅ की ओर से न्यायधीशों का स्वागत किया गया। तब मुख्य न्यायधीश ने बिहार एवं उड़ीसा राज्य के लिए उच्च न्यायालय के स्थापना की घोषणा की एवं फोर्ट विलियम, बंगाल के उच्च न्यायालय के द्वारा राज्य में लागू क्षेत्राधिकार को यहीं से इस न्यायालय में हस्तांतरित किया गया।

    विस्तार


    पटना उच्च न्यायालय ने 1916 में मुख्य न्यायाधीश और 6 अवर न्यायाधीशों के साथ अपना कार्य प्रारंभ किया था। 1947 में, न्यायालय की स्वीकृति संख्या नौ (9) स्थायी एवं तीन (3) अतिरिक्त न्यायाधीश की थी, यद्यपि 1937 में उड़ीसा के लिए एक पृथक प्रांत सृजित किया गया था फिर भी इस उच्च न्यायालय ने उस प्रांत के राज्य क्षेत्र पर 26 जुलाई, 1948 तक अधिकारिता का प्रयोग किया, जब उड़ीसा के लिए एक पृथक उच्च न्यायालय का गठन किया गया। उड़ीसा उच्च न्यायालय की स्थापना के पश्चात् भी इस न्यायालय के लिए न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या वही रही। फरवरी 1950 में, तीन अतिरिक्त न्यायाधीश के पद स्थायी किए गए। सितम्बर 1952 में 13 स्थायी न्यायाधीशों के पद सृजित किए गए एवं जनवरी 1956 में 14 स्थायी न्यायाधीशों के पद सृजित किए गए। उसके पश्चात् से न्यायालय के स्थायी न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या में कोई वृद्धि नहीं हुई है। जुलाई 1957 से समय-समय पर अतिरिक्त न्यायाधीशों के चार पद भी स्वीकृत किए गए हैं। नवम्बर 1965 में मुख्य न्यायाधीश एवं 3 अतिरिक्त न्यायाधीश सहित 14 स्थायी न्यायाधीश थे। वर्तमान में मुख्य न्यायाधीश और 14 अतिरिक्त न्यायाधीश सहित 29 स्थायी न्यायाधीश हैं। वर्ष 1916 में जब पटना उच्च न्यायालय की स्थापना की गई तो इसके अधिकारिता में 11 न्यायमंडल बिहार में और 1 उड़ीसा में थे। वर्ष 1947 में, बिहार में 13 न्यायमंडल थे, उड़ीसा में पहले ही 1965 में अपने स्वयं के एक पृथक उच्च न्यायालय के साथ एक पृथक प्रांत का गठन किया गया था। हजारीबाग और पलामू के न्यायमंडल क्रमशः 4 अप्रैल 1949 और 18 जुलाई 1960 को बनाए गए। पूर्व में पुरूलिया में मुख्यालय के साथ मानभूम और सिंहभूम जिलों के लिए केवल एक न्यायमंडल था। पुरूलिया सहित मानभूम जिले के एक हिस्से को पश्चिम बंगाल में स्थानांतरित करने के बाद, मानभूम जिले का शेष भाग जिसे धनबाद जिले के नाम से जाना जाता है, और सिंहभूम जिले को 1 नवम्बर 1956 से धनबाद में मुख्यालय के साथ एक नया न्यायमंडल और सत्र खंड बनाया गया। 4 फरवरी 1960 को चाईबासा में मुख्यालय के साथ सिंहभूम के लिए एक अलग न्यायमंडल बनाया गया। इस प्रकार वर्तमान में 17 जिलों के विरूद्ध 16 न्यायमंडल हैं। सहरसा के लिए एक अलग न्यायमंडल का सृजन किया गया है। साथ ही उच्च न्यायालय के नियंत्रण और पर्यवेक्षण के अधीन न्यायमंडलों की संख्या बढ़ाकर 17 कर दी गई है। 15 नवम्बर 2000 को बिहार राज्य के विभाजन पर, झारखंड का एक नया राज्य अस्तित्व में आया और 13 न्यायमंडल नवसृजित झारखंड राज्य के पास बने रहे। वर्तमान में बिहार में जमुई और शिवहर न्यायमंडल क्रमशः वर्ष 2005 एवं 2012 में सृजन के साथ कुल 31 न्यायमंडल हैं।

    स्वतंत्रता के बाद


    वर्ष 1947 में भारत ने डोमिनियन का दर्जा प्राप्त किया। 26 जनवरी, 1950 को यह गणराज्य बना। भारत ने अपना संविधान बनाया और न्यायपालिका पर संविधान के तहत् स्वतंत्रता एवं सम्पत्ति के व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करने की गारंटी दी गई। जटिलता और अत्यधिक महत्व के प्रश्नों की समस्याएॅ न्यायालय के समक्ष आ गई हैं और वे सबसे अधिक खोज, विश्लेषण और बहस के अधीन हैं, और कई मामले प्रशंसनीय तरीके से हल कर लिए गए है। उच्च न्यायालय की अधिकारिता और शक्तियाॅ काफी बढ़ गई है। अनुच्छेद 226 के भाग प्प्प् के अधीन उच्च न्यायालय को बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण रिट, निर्देश या आदेश जारी करने की शक्ति, संविधान के भाग और किसी अन्य प्रयोजन के लिए प्रदत्त अधिकारों में से किसी के प्रवत्र्तन के लिए और संविधान के अनुच्छेद 235 के अधीन जिला न्यायालयों और उसके अधीनस्थ न्यायालयों पर नियंत्रण, जिसके अंतर्गत इन न्यायालयों के कार्मिक भी है, इस न्यायालय में निहित है। कार्यकारी तथा न्यायिक कृत्यों के पृथक्करण की योजना पहली बार 3 जनवरी 1950 को पटना और शाहाबाद जिलों में प्रारंभ की गई थी। यह तब से राज्य के सभी जिलों में लागू की गई है। यह योजना मेरेडिथ समिति की रिपोर्ट और श्री कन्हैया सिंह की रिपोर्ट पर आधारित है। इस योजना में यह परिकल्पना की गई है कि आपराधिक मामलों का विचारण करने वाले सभी मजिस्टे्रट एवं मुंसिफ मजिस्टे्रट सेशन न्यायाधीशों के माध्यम से उच्च न्यायालय के नियंत्राधीन होने चाहिए और जिला तथा अनुमंडल मजिस्टे्रटों का मुंसिफ या न्यायिक मजिस्टे्रट को विचारण के लिए स्थानांतरित किए जाने के पश्चात् किसी दांडिक मामले से और कोई संबंध नहीं होना चाहिए।